4 दिन पहले
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घर के पूजा घर की देखभाल और सजावट की जिम्मेदारी किसकी होती? रोज और हर त्योहार पर घर में कौन पूजा करता है, कौन प्रसाद बनाता और चढ़ता है? पूजा की थाली और रंगोली कौन सजाता है? एक ही सुर में एक ही नाम गूंजेगा गृहलक्ष्मी। घर की गृह लक्ष्मी कौन है? ये पत्नी, मां, बहू और बेटियां कोई भी हो सकती हैं। हर घर में यही स्त्री हर बच्चे को बचपन में श्रीराम के नाम से परिचय कराती है। बच्चे मां को सुंदरकांड पढ़ते देखते हैं, मां ही श्रीराम का प्रसाद बनाती और खिलाती है, मां ही अष्टमी-नवमी पर हलवा पूड़ी खिलाती है। मां ही राम के प्रति आस्था के बीज बोती है। मां ही पूरी श्रद्धा और सुर में तब से ‘ओम जय जगदीश हरे…’ गाती है जब न यूट्यूब था और न अलेक्सा आरती गाकर सुनाती थी।
बच्चा जन्म से पहले ही सीखना शुरू करता है
अभिनेता और मॉडल अर्पित रांका कहते हैं, ‘हमारे जीवन में मां की भूमिका जन्म के बाद नहीं, जन्म से नौ महीने पहले ही शुरू हो जाती है। महाभारत में अभिमन्यू इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। उसने मां के गर्भ में ही चक्रव्यूह भेदने की कला सीखी। मां जैसा सोचती है, जैसे उसके संस्कार होते हैं वो बच्चे में भी आते हैं।’
ईश्वर बुरे वक्त में ताकत बनकर लड़ने की शक्ति देते
मैं जिस इंडस्ट्री में पिछले 20 साल से हूं वहां रोज अनिश्चिता से गुजरना पड़ता है। करियर में उतार चढ़ाव आना कोई नई बात नहीं। लेकिन पूजापाठ में विश्वास और ईश्वर में मेरी आस्था मुझे इस उतार चढ़ाव से जूझने की शक्ति देती है। मैं शूटिंग के दौरान चाहे कहीं भी रहूं रोजाना एक घंटा पूजा करता हूं और मां से मिली इसी आस्था ने मुझे कमजोर पलों में बुरी संगत की तरफ झुकने से बचाया।
भक्ति की चाहे राम की करो या किसी भी शक्ति में आस्था हो, वो ये विश्वास दिलाती है कि आपके साथ कभी कुछ बुरा नहीं होगा। मेरी मां की पूजा में आस्था से मैंने यही सिखा, जिसे मैं आजतक खुद अपने जीवन में उतार रहा हूं। मेरे घर में भी एक पूजा घर है जो ईश्वर में आस्था का प्रतीक है।
मां भजन गाती, मैं सुनती और याद हो गए
‘बालिका वधू’ सीरियल की गहना यानी नेहा मर्दा आज एक प्यारी सी बेटी की मां हैं। नेहा कहती हैं, ‘मां सुबह पूजा करतीं, आरती और भजन गातीं। उन्हीं को सुनकर हम बड़े हुए और हमें भजन और आरती याद भी हो गए। मां रामायण और गीता दोनों पढ़तीं। मां की इसी आदत ने हमें कल्चरली स्ट्रॉन्ग बनाया, दुनिया की समझ दी, सही-गलत का फर्क सिखाया।
मैं सोचती हूं कि मुझे देखकर मेरी बेटी में भी पूजा-पाठ के प्रति उतना ही विश्वास और आस्था बनेगी।
भक्तिमय संस्कार मां से आते हैं
बीएचयू के प्रोफेसर डॉ. इन्द्र बली मिश्रा के अनुसार, मां को पहला गुरु कहा गया। बच्चा गर्भ से ही मां की गतिविधियों को सीखता है। बायोलॉजिकली देखा जाए तो मां के सारे सेल्स बच्चे में एक्टिव होते जाते हैं। आनुवांशिकता इसे ही तो कहते हैं। बिना किसी प्रयास या कुछ सिखाए अपने आप बच्चा माता-पिता के रूप-रंग और आदतों में ढलने लगता है। मां की सोच, शक्ति, सामर्थ्य, ज्ञान सबकुछ बच्चे में समाहित होने लगता है।
जन्म के बाद बच्चा वातावरण से सीखता है। शुरू के तीन वर्ष बच्चा हर समय अपनी मां के साथ रहता है। वह देखता है कि मां घर के मंदिर में सुबह-शाम पूजा करती है, भजन गाती है, ताली या घंटी बजाती है। बच्चा भी अपने आप इस वातावरण में ढलने लगता है।
आत्महत्या से बचाती ईश्वर में आस्था
जो बच्चे अपने परिवार के माहौल से ये सीखते हैं कि ईश्वर एक ऐसी अदृश्य शक्ति है जो हर समय आपके साथ रहती है और आपके साथ कभी कुछ बुरा नहीं होने देती, ऐसे बच्चे कभी आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाते। ईश्वर में आस्था रखने वाले डिप्रेशन का शिकार भी नहीं होते। उन्हें ये भरोसा होता है कि ईश्वर के होते हुए उनके साथ कभी कुछ बुरा नहीं होगा।
सुविधा से ज्यादा संस्कार जरूरी
आजकल वर्किंग पेरेंट्स बच्चों को जीवन के सभी सुख-सुविधाएं तो दे देते हैं, लेकिन उन्हें सही संस्कार सिखाने का समय उनके पास नहीं होता। ऐसे बच्चे या तो घर के नौकरों के हाथों बड़े होते हैं या बेबी सिटिंग में पलते हैं। इन बच्चों को वो संस्कार कहां से मिलेंगे जो उन्हें अपने माता-पिता से मिलने चाहिए। बच्चों को सुविधाएं भले ही कुछ कम दी जाएं, लेकिन अच्छे संस्कार न मिलने पर ऐसे बच्चे आगे चलकर मुश्किलों के आगे घुटने टेक देते हैं। बच्चे हमारा असली धन हैं, पहले उन्हें काबिल बनाना जरूरी है।
मां ईश्वर में आस्था से परिचय कराती
देवघर के पुजारी कार्त्तिक नाथ ठाकुर मानते हैं कि इंसान ही नहीं हर प्राणी की पहली शिक्षक मां ही होती है। मां बच्चे के जीवन की आधारशिला होती है। मां ही बच्चे में ईश्वर के प्रति आस्था जगाती है। चूंकि मां के दिए संस्कार बच्चे के साथ जिंदगीभर रहते हैं। इसलिए मां पूजा घर में जो रोज पूजा पाठ करती है बच्चे वही सीखते हैं और उनका पूजा-पाठ व ईश्वर में विश्वास बढ़ता है।
कठिन श्लोक ऐसे याद होते हैं
कार्त्तिक नाथ कहते हैं, ‘आपके देखा होगा, छोटी उम्र के कई बच्चों को इतने कठिन श्लोक, भजन याद होते हैं कि बड़े लोग उन्हें सुनकर दांतों तले उंगली दबा देते हैं। 3 से 5 साल तक के बच्चे किसी भी चीज को बहुत जल्दी सीख जाते हैं। जब वे अपने घर में भक्तिभाव का माहौल देखते हैं तो उन्हें भी वो सारी चीजें जल्दी याद हो जाती हैं।
मोबाइल थमाने के बजाय बात करें
कई महिलाएं बच्चे को खाना खिलाने या बिजी रखने के लिए उनके हाथ में मोबाइल पकड़ा देती हैं और खुद दूसरे कामों में लग जाती हैं। ऐसा करना बच्चों के विकास के लिए सही नहीं। बच्चे की अच्छी परवरिश के लिए उनके साथ समय बिताना जरूरी है।
आप भले ही बच्चे को यूट्यूब पर भजन लगाकर दें, लेकिन उसका असर वैसा नहीं होगा जैसा घर के मंदिर में मां को भजन गाते देखकर होता है।
मां की बातों का असर
मां ने मीरा से कहा कि कृष्ण उसके जीवनसाथी हैं। उस छोटी बच्ची ने इस बात को इतनी संजीदगी से माना कि फिर कृष्ण के सिवाय किसी और अपना मान ही नहीं सकी।
मां के संस्कार उम्रभर काम आते हैं
काशी गुरुकुल के आचार्य डॉ. प्रीति विमर्शिनी मानती हैं कि गर्भ में शिशु तीन नाड़ियों से मां से जुड़ा हुआ होता है- एक नाड़ी से शिशु के प्राण चलते हैं, दूसरी नाड़ी से उसे भोजन मिलता है और तीसरी नाड़ी से वह ज्ञान ग्रहण करता है। गर्भावस्था में मां जो भी सोचती या पढ़ती है उसकी प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ता है।
गर्भ में पूरे होते तीन संस्कार
सोलह संस्कार में से तीन संस्कार मां के गर्भ में ही पूरे हो जाते हैं। पहला संस्कार गर्भाधान है और दूसरा पुंसवन। गर्भ के तीसरे माह में विधिवत पुंसवन संस्कार संपन्न कराया जाता है। इस समय तक गर्भस्थ शिशु के विचार तंत्र का विकास शुरू हो जाता है। पुंसवन संस्कार द्वारा वेद मंत्रों, यज्ञीय वातावरण एवं संस्कार सूत्रों की प्रेरणाओं से शिशु के मानस पर श्रेष्ठ प्रभाव पड़ता है। साथ ही अभिभावकों और परिजनों को भी यह प्रेरणा मिलती है कि भावी मां के लिए श्रेष्ठ मनःस्थिति और परिस्थितियां विकसित की जाएं।
तीसरा संस्कार सीमन्तोन्नयन है जो गर्भ के सातवें महीने में संपन्न किया जाता है। इस समय शिशु के मस्तिष्क का विकास होता है। इस समय आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन करने से शिशु पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। मां के खानपान और विचारों का भी शिशु पर प्रभाव पड़ता है। जन्म के बाद मां बच्चे को जैसी परवरिश, जैसे संस्कार देती है, वैसा ही उसका व्यक्तित्व बनता है और पूजा पाठ भी इसी का एक हिस्सा है।
वेदों में कहा गया है कि स्त्री में वो शक्ति है कि वह अपनी संतान को ज्ञानी, पराक्रमी, दयालु कुछ भी बना सकती है। हमारे देश में यशोदा, कुंती, जीजाबाई जैसी कई मांएं हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को वीरता, शौर्य, न्याय और मानवता का पाठ पढ़ाया। आज भी ऐसी कई कामयाब संतानें हैं, जिनकी सफलता में उनकी मां का बहुत बड़ा योगदान रहा है।
पहले खुद को बदलें
हाउस वाइफ राधा बिष्ट कहती हैं, मां होना एक बड़ी जिम्मेदारी है। अपनी संतान को सही संस्कार देकर मां समाज को ऐसा नागरिक दे सकती है जो समाज की शक्ल बदल दे, कामयाबी की बड़ी से बड़ी मिसाल कायम कर दे।
बच्चा वैसा ही बनता है जैसा माहौल वह अपने आसपास देखता है। यदि वो अपने पैरेंट्स को हमेशा लड़ते-झगड़ते देखता है, तो उसका व्यवहार झगड़ालू और नकारात्मक होने लगता है। लेकिन घर में रोज पूजा पाठ होते देख बच्चे के मन में भी सात्विक विचार आने लगते हैं।
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