7 दिन पहले
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डॉक्टर चंद्रकांत एक वैद्य और वेदांत दोनों नवयुवक डॉक्टर थे। बाजार में आमने सामने दोनों के क्लिनिक थे। जब दोनों के पास कोई पेशेंट नहीं होता था तब दोनों बैठकर काफी गपशप करते थे। कभी कभी ये गपशप आपसी झगड़े तक पहुंच जाती थी। इसका कारण था डॉक्टर चंद्रकांत की पुरानी सोच और अंधविश्वास जिस पर वेदांत को यकीन नहीं होता था। एक दिन दोनों के बीच अजीबोगरीब बहस छिड़ गई।
”वास्तव में भूत प्रेत होते हैं या ये सब किस्से कहानियों में ही मिलते हैं?” वेदांत ने अपनी तरफ से बात छेड़ी।
“तुम नये जमाने के लोग ये बात मानो या न मानो लेकिन ये सच है कि शरीर मरता है, लेकिन आत्मा कभी नहीं मरती।ये अजर अमर है।”
हालांकि चंद्रकांत बाबू और वेदांत सेन के बीच सिर्फ तीन साल का ही अंतर था, फिर भी चंद्रकांत हमेशा वेदांत को ‘नये जमाने के लोग’ कह कर ही संबोधित करता था।
“भई, मैं तो शुरू से ही नास्तिक रहा हूं। न मुझे कभी ईश्वर के अस्तित्व में आस्था रही और न ही मैं भूतों के अस्तित्व को मानता हूं। फिर भी बचपन में प्राप्त संस्कारों के कारण मैं कभी कभी भूतों और चुड़ैलों की कल्पना जरूर कर लेता हूं।”
“और उनके अस्तित्व की कल्पना से उत्पन्न रोमांस से रोमांचित भी हो उठते होंगे।”
“वो तो है।”
“कहा जाता है कि जिस इंसान की मृत्यु समय से पहले हुई है, जैसे किसी एक्सीडेंट में, हत्या या आत्महत्या में, तो उसकी आत्मा भटकती रहती है। इसके साथ जिन आत्माओं का श्राद्ध कर्म, तर्पण इत्यादि नहीं किया जाता है उनकी भी आत्मा भटकती रहती है।”
“वो तो सुनी सुनाई बातें हैं। डॉक्टर होने के बावजूद आप इन बातों पर विश्वास कैसे कर लेते हैं?” वेदांत ने थोड़ा चिढ़ कर पूछा।
“भूत प्रेतात्माओं पर विश्वास तो अमेरिका और इंग्लैंड जैसे विकसित देशों में भी किया जाता है। डॉक्टर होने के नाते मैं इतना जरूर कहूंगा कि आत्माएं उन लोगों को अधिक तलाशती हैं जो मानसिक और शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं या डरे डरे रहते हैं।”
“कोई उदाहरण बता सकते हैं?”
“जरूर” चंद्रकांत ने कुछ याद करने की कोशिश की।
फिर कहना शुरू किया, “बहुत पुरानी बात है। आम परिवारों की तरह कॉलेज से निकलते ही मेरे लिए समृद्ध घरानों से रिश्ते आने शुरू हो गए थे। लेकिन मैं हमेशा शादी करने से इनकार कर देता था।
एक दिन पापा ने कड़कती आवाज में मुझसे पूछा, “शादी न करने की कोई खास वजह?”
“एक शादीशुदा व्यक्ति दोबारा शादी कैसे कर सकता है?”
“शादी?”
“कब हुई तुम्हारी शादी और किससे?”
और फिर शुरू हुआ कभी न खत्म होने वाला क्लेश। रोना धोना, डांट-फटकार। मुझे हर दिन ऐसा महसूस कराया जाता जैसे मैंने शादी न करने की बात कहकर कोई अपराध कर दिया हो। पर मैं क्या करता। क्या बताता। न मुझे अपनी ब्याहता पत्नी का नाम पता था और न ही उसका रूप रंग चेहरा मोहरा ही याद था। सिर्फ एक अनुभूति थी जो मुझे एक विवाहित पुरुष होने का प्रमाण प्रस्तुत करती थी।
काफी दिनों तक ये सब चलता रहा। किसी ने कहा मेरे ऊपर किसी प्रेतात्मा का साया है जो मेरे विवाह करने के रास्ते में रोड़े अटका रही है, तो किसी ने ये कहा कि हो सकता है, मैं अपने पुराने जन्म को अभी तक भूल नहीं पाया हूं।”
आखिर एक दिन सभी दोस्तों और रिश्तेदारों की सर्वसम्मति से मेरी शादी निधि से करवा दी गई। सभी की यही धारणा थी कि सुखद, संतप्त और सुनियोजित वैवाहिक जीवन शुरू होते ही मैं अपने पूर्व जन्म को पूरी तरह से भूल जाऊँगा।
निधि सुंदर, पढ़ी-लिखी, संस्कारी लड़की थी। सही मायने में वो हर तरफ से विवाह की कसौटी पर खरी उतरती थी, लेकिन मैंने उसे कभी नहीं अपनाया। उसे छूना तो दूर मैं उसकी तरफ कभी देखता भी नहीं था।
कुछ समय तक ये बात छिपी रही, लेकिन धैर्य की भी एक सीमा होती है। आखिर एक दिन निधि ने अपने अधूरे असंतुष्ट वैवाहिक जीवन की बात अपनी भाभी से की। भाभी ने ये बात निधि की मां को बता दी।
बंद कमरे की बातों का खुलासा मेरे परिवार के लोगों के सामने भी हुआ। फिर तो जितने मुंह उतने सुझाव। बड़े बुजुर्गों ने सलाह दी कि जितना ज्यादा समय मैं और निधि दोनों एक साथ बितायेंगे उतना ही दोनों पास आयेंगे। दोनों की गलतफहमियां दूर होंगी, बाधाएं हटेंगी, अड़चनें मिटेंगी” सब को पूरी उम्मीद थी कि इस तरह से हमारा वैवाहिक जीवन खुशनुमा हो उठेगा।
उन्हीं दिनों एक अजीबोगरीब रोमांस मेरे साथ घटित हुआ। मुझे पहली बार बैंगलोर से टुमकुर एक कांफ्रेंस में जाने का मौका मिला।निधि भी मेरे साथ गयी। वहीं मेरे एक सहयोगी ने मुझे भानगढ़देख आने पर जोर दिया और टूरिस्ट ऑफिसर के साथ एक कार द्वारा मेरे वहां जाने का इंतजाम भी कर दिया गया।
रास्ते भर बादल छाये रहे। कहीं कहीं हल्की बूंदा बांदी भी हो रही थी। इसीलिए मौसम और भी अधिक सुहाना हो गया था। बंगलौर से भानगढ़ जाने के लिए हमें एक पतली सड़क की तरफ मुड़ना पड़ा। सात किलोमीटर की इस दूरी के बीच न कोई मनुष्य दिखाई दिया न ही कोई पशु पक्षी। दोनों ओर से ऊसर ही ऊसर।
कार एक म्यूजियम के पोर्च में आकर रुकी। म्यूज़ियम के केयरटेकर ने बताया, “कभी भानगढ़ एक बसा हुआ शहर था जो बाद में एक तांत्रिक के शाप से पूरी तरह नष्ट हो गया। अब बरसात के मौसम में कभी कभार ही कोई टूरिस्ट ये म्यूजियम देखने आता है।”
लगभग 2400 साल पहले एक रात जब पूरा शहर सोया हुआ था। तभी ये महल भी नष्ट हुआ होगा। खुदाई के समय यहां एक जवान पुरुष और स्त्री के कंकाल भी मिले थे।” म्यूजियम दिखाते दिखाते वो मुझे उस फ्रेम के पास भी ले गया जहां वो दोनों कंकाल एक दूसरे के गले में बाहें डाले आमने सामने लेटे हुए थे।
मैं जितने ध्यान से उस कंकाल को देखता उतनी ही सनसनी मेरे पूरे शरीर में फैलती जा रही थी। ऐसा लगा जब ये जोड़ा प्रणय लीला में डूबा हुआ होगा तभी वो डरावना भूकंप आया होगा और दोनों मृत्यु की गोद में समा गये होंगे।
ऑफिसर खुदाई में निकले अन्य भग्नावशेषों के बारे में बता रहा था, लेकिन वहां अन्य भग्नावेशों का कोई विशेष चिह्न दिखाई नहीं दे रहा था। ऑफिसर ने बताया कि इस स्थान पर समुद्र तट होने का अनुमान है और अचानक जमीन फटने से अन्य कंकाल भी इसी स्थान पर दफन हो गये होंगे।
कुछ देर बाद हमें होटल पहुंचना था। दस सीढ़ियों की ऊंचाई पर बने ‘उत्तेलिया’ नामक स्थान पर वहां के आलीशान राजमहल के एक भाग को ‘हेरिटेज होटल’ बना दिया गया था। महल का नक्काशीदार लकड़ी का गेट बहुत बड़ा था। महल का एक कर्मचारी मुझे पुरानी सीढ़ियों के रास्ते से फर्स्ट फ्लोर पर बने हुए बेडरूम तक ले गया। दो ऊंचे ऊंचे पलंगों पर साफ सुथरे बिस्तर बिछे थे। बगल में ही बाथरूम था।
फिलहाल पूरा होटल खाली था। कमरे के बाहर बरामदे पर खड़े होकर मैंने देखा, गांव के चारों ओर गड्ढों में पानी भरा हुआ था। दूर एक नदी बह रही थी। डाइनिंग हॉल काफी बड़ा था, पुराना फर्नीचर, छत पर दो बड़े फानूस, बड़े आकार के दो बड़े बड़े शीशे।
भोजन करने वाले हम दोनों ही थे, फिर भी तीन चार बैरे घूम रहे थे। भोजन से वापस लौट कर आने के कुछ देर बाद वो बैरे बोले, “साहब अब हम वापस अपने अपने घरों को जाएंगे, अगर किसी चीज की जरूरत हो तो बता दीजिए।”
मुझे ये सुनकर बड़ा अटपटा लगा कि महल के इस भुतहे भाग में हम दोनों पति पत्नी अकेले सोएंगे। फिर भी इन बैरों के सामने कायरता दिखाने का साहस नहीं जुटा पाया।
“अब किसी चीज की जरूरत नहीं है, बस सुबह सात बजे चाय लूंगा।” कहकर मैंने दरवाजे की सिटकनी लगायी और निधि की बगल में आकर सोने की कोशिश करने लगा।
लेकिन आंखें बंद करते ही लाख कोशिशों के बावजूद मस्तिष्क में दबायी हुई उन कंकालों की स्मृति बार बार मेरे विचारों मे आनेलगी। युवक का चेहरा चाहे दूसरी तरफ था, लेकिन युवती की आंखों की कोटरें मुझ पर ही फोकस थीं। मन उद्विग्न था, फिर भी दिन भर की थकावट के कारण मैं गहरी नींद सो गया।
“शंभु… शंभु…” हालांकि मेरा नाम शंभु नहीं है, पर मुझे लगा जैसे कोई मुझे जोर से पुकार रहा है।
आंखें खोल कर देखा तो एक सुंदर नवयुवती, जो सिर्फ अपने शरीर के ऊपरी भाग को ही ढके हुए थी, मेरे सामने खड़ी हुई मुस्कुरा रही थी। हैरानी इस बात की थी कि उसकी मौजूदगी से मुझे किसी प्रकार का डर या अजनबीपन महसूस नहीं हो रहा था, बल्कि मैं मंत्रमुग्ध सा उसे देख रहा था।
अचानक मेरे अवचेतन में दबी हुई अतीत की परतें खुलने लगीं और मेरे मुंह से निकला, “पारो तुम?”
अपना नाम सुनकर वो खिल उठी। फिर उसने मुझे अपने पीछे पीछे आने का इशारा किया। वह हवा में तैरती उस दिशा की तरफ चल दी जहां अवशेष मिले थे।
मैं भी उसके पीछे पीछे चलने लगा। आकाश में सूरज निकला हुआ था, फिर भी घने जंगल के कारण एकाध किरण ही जंगल में प्रवेश कर पा रही थी। जंगल में चारों तरफ जानवर घूम रहे थे। मैं थोड़ा डरा हुआ था, लेकिन पार्वती पहले की ही तरह आगे बढ़ती जा रही थी।
कुछ आगे चलने पर एक पाठशाला दिखाई दी जहां ऋषि समान एक अध्यापक बच्चों को पढ़ा रहे थे। चलते चलते हम नगर के बीच एक महल तक पहुंच गये जो बिल्कुल इसी राजमहल जैसा था।
पार्वती मुझे एक कमरे में ले गयी और कुछ देर रुकने का इशारा करके उसने दीवार पर बनी एक अलमारी में से मेरे लिए कुछ कपड़े, दूसरी अलमारी में से कुछ खाने की चीजें निकालीं।
फिर वो मुझे नगर के किनारे स्थित समुद्र तट पर ले गयी, जहां अनेक नौकाएं तैर रही थीं, पर तट एकदम सुनसान था। हम दोनों देर तक नौका विहार करते हुए आंखों ही आंखों में प्रेमालाप करने लगे।
सूरज ढलने के बाद पार्वती नौका को तट पर ले आयी। जल की गहरायी कम रह जाने पर वो मेरे साथ समुद्र में कूद पड़ी। हमने देर तक समुद्र में जलक्रीड़ाएं कीं। इसके बाद समुद्र तट पर भोजन करते हुए अंधेरा हो गया।
अब हम दोनों खुद पर और अधिक नियंत्रण रख पाने में असमर्थ थे। वहीं समुद्र तट पर हमने एक दूसरे को अलिंगनबद्ध कर लिया। हम दोनों का चेहरा आमने-सामने था। हम दोनों उत्तेजना के चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुके थे।
एकाएक पार्वती की चीख सुनाई दी। तभी मेरा ध्यान समुद्र की ओर गया। वहां शहर की ओर से भूमि फटती हुई दिखायी दी। जब तक मैं कुछ कह पाता हम दोनों भूमि में समा गये।
उसी समय मुझे महसूस हुआ जैसे समुद्र में अदृश्य हुई पार्वती मुझसे कह रही है, “मेरी आत्मा युगों से तुम्हारी तलाश में भटक रही थी। तुमने मेरा उद्धार करके आज मुझे तृप्त कर दिया।”
इसके बाद बैरे के खटखटाने पर मेरी नींद खुल गयी। मैंने उठकर दरवाजा खोल दिया। वो मेरे चेहरे को गौर से देख कर बोला, “साहब, लगता है आपने रात में मच्छरदानी नहीं गिराई। आपके गालों पर लाल निशान उभर आए हैं।”
मैंने खुद को शीशे में देखा। निधि की लिपस्टिक के निशान मेरे गालों पर अंकित थे और वो मंद मंद मुस्कुराती हुई चादर से अपने अर्धनग्न शरीर को ढक रही थी।”
“अब तुम चाहे कुछ भी सोचो, कुछ भी कहो, मेरे मन का डर या शारीरिक मानसिक कमजोरी। लेकिन टुमकुर से भानगढ़ और वहां से उत्तेलिया राजमहल तक पहुँचना क्या मात्र संयोग था? या उन पूजा अर्चनाओं का परिणाम जो हमारे शुभचिंतक, समय समय पर ओझाओं के पास जाकर, हमारे असंतुष्ट वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए किया करते थे?
सपने में मिलने वाली पार्वती को संतुष्ट करने के बाद हमारे वैवाहिक जीवन को एक नयी दिशा क्यों और कैसे मिल गयी? मेरा मन तो आज भी यही गवाही देता है कि पार्वती की अतृप्त आत्मा को शांति मिलने के बाद ही हम दोनों का पुनर्मिलन उत्तेलिया के राजमहल में संभव हुआ। निधि ही मेरे पूर्व जन्म की पार्वती थी।”
– पुष्पा भाटिया
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